रविवार, 27 अक्तूबर 2019

प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो



हमारे समाज तथा आभासी समाज (सोशल मीडिया) में एक प्रवृत्ति देखने को मिलती है कि "बेटियों" को "बेटा" कहकर संबोधित किया जाता है। कुछ घरों में बहू के प्रति ज्यादा प्रेम प्रदर्शित करने के लिये भी बहू को "बेटा" कहकर संबोधित किया जाता है या कहा जाता है कि ये हमारी बहू नहीं बेटी है।अविवाहित, विवाहित महिलाओं द्वारा किसी प्रकार की उपलब्धि/सफलता प्राप्त करने या नृत्य अथवा गायन के वीडियो से संबंधित पोस्ट में भी महिलाओं को "बेटा" शब्द से संबोधित किया जाता है।
बधाई बेटा..., बहुत अच्छा बेटा...

दीपावली में स्वयं की सुख-समृद्धि या सरल शब्दों में कहें तो स्वयं के स्वार्थ के लिये लक्ष्मी पूजन का स्वांग करने वाले, बेटी को बेटा कहकर संबोधित करने वालों के मन में बेटी या महिला होने के प्रति इतनी हीनभावना क्यों है कि उन्हें बेटा कहकर संबोधित किया जाये।

हालांकि मन में हीनभावना होने की बात सबके लिये नहीं कही जा सकती है। फिर भी सामाजिक व्यवहार के मापदंडों पर विचार और संवाद तो होना ही चाहिये।

माना कि ऐसे संबोधन के पीछे किसी प्रकार का नकारात्मक भाव नहीं ढूंढा जाना चाहिये लेकिन ऐसे लोग गलती से ही सही किसी अविवाहित/ विवाहित पुरुष को बेटी शब्द से संबोधित क्यों नहीं करते।

अगर सामाजिक व्यवहार की ऐसी ही परंपरा है तो हीनभावना को परिलक्षित करने वाली परंपरा क्यों रहनी चाहिये।

बेटी को बेटी के तौर और बहू को भी बहू के तौर पर ही सम्मान दिया जाना चाहिये। क्या बहू की स्वीकार्यता समाज में अभी भी केवल इतनी है कि उसे विशिष्ट सम्मान के लिये बहू के बजाय बेटी होने के आवरण की आवश्यकता पड़े।

बेटा - बेटी के संदर्भ में समाज में अभी भी एक ऐसी विलक्षण प्रजाति मौजूद है जो बेटे की चाह में कई सारी बेटियाँ पैदा करते जाते हैं या भ्रूण हत्या जैसे विकल्पों के बारे में सोचते हैं। यूं लगता है जैसे इनके घरों में राजकुमार का जन्म नहीं हुआ तो सल्तनत कौन संभालेगा। राजकुमार के पैदा होने का इंतजार करने के बजाय बेटी को ही उचित संसाधन देकर सक्षम बनाये जाने की आवश्यकता है।

आवश्यकता है कि बेटी को बेटी के तौर पर, बहू को बहू के तौर पर, महिला को महिला के तौर पर ही सम्मान मिले।

 आखिर कोई महिला सम्मान के लिये पुरूष के आवरण की तथा कोई बहू सम्मान के लिये बेटी के आवरण की मोहताज क्यों हो...