बुधवार, 13 नवंबर 2019

तुम कितनी खूबसूरत हो, ये मेरे दिल से पूछो

         उसकी उम्र कितनी रही होगी, शायद इतनी, नहीं - नहीं शायद इतनी नहीं, इससे कुछ कम या कुछ ज्यादा या हो सकता है उसकी उम्र के बारे में मेरा अनुमान ठीक रहा हो। उसकी उम्र कुछ भी रही हो, इस सबका उसके प्रति मेरी भावनाओं से कोई संबंध भी तो नहीं।

        मेरी उसके प्रति कुछ भावनाएँ हैं तो क्या कुछ और लोग भी उसके बारे में कुछ सोचते होंगे। मेरा ध्यान तो हमेशा ही उसकी तरफ जाता है। जैसे मैं सोचता था कि वो क्या सोच रही होगी, क्या और लोग भी उसके बारे में ऐसा कुछ सोचते होंगे। लेकिन किसी की भी भावनाएँ उससे क्यों जुड़ी होंगी और कोई भी उसके बारे में क्यों सोचेगा।

       क्या यह एक सामाजिक विडम्बना नहीं है कि वह लड़की हममें से ज्यादातर की सोच के दायरे में भी नहीं आती है। आत्ममुग्धता के दायरे में रहने वाले समाज की सोच में आखिर वो कैसे शामिल हो सकती है।

       हममें से कितने लोग उससे या उस जैसे किसी और से भावनात्मक लगाव रखते हैं। उसे हम रोज ही तो देखते हैं, लेकिन वो कहीं से भी हमारी सोच में शामिल नहीं है। क्या ऐसा नहीं लगता कि हमारी सोच बेहद सीमित हो गयी है।

       हाँ, ये सब बातें उसके लिये ही तो हैं। वो लड़की जिसकी उम्र 12 - 13 साल रही होगी।

        ये उसी लड़की की तो बात है, वो छोटी सी लड़की,
के. एम. ओ. यू. लि. कार्यालय अल्मोड़ा के ठीक सामने सड़क किनारे फल बेचने वाली लड़की।
     
         जहाँ पर वो टोकरी में फल रखकर बैठती थी, उससे कुछ दूरी पर ही तो जिलाधिकारी कार्यालय अल्मोड़ा के लिये सीढ़ियाँ जाती थीं और अल्मोड़ा कालेज जाने के लिये भी मुख्य सड़क वही है।

          क्या कभी कालेज जाने वालों को देखकर वह खुद के स्कूल जाने के बारे में सोचती होगी या वह छोटी सी उम्र में ही फल बेचकर खुश रहती होगी। क्या उसके विचार इतने परिपक्व हो गये होंगे कि वो ऐसा कुछ सोच पाती होगी। क्या किसी कालेज छात्रा के अच्छे कपड़ों को देखकर वो सोचती होगी कि मेरे पास भी ऐसे कपड़े होते।
 
           क्या वो ऐसा कुछ भी समझती होगी कि कालेज जाने वाले ये दोनों कुछ ज्यादा ही साथ दिखाई देते हैं, हो सकता है वो ये सब भी समझती होगी।

           अब उस लड़की के लिये कुछ अलग तरीके से सोचें। क्या कभी कालेज जाने वालों की बड़ी संख्या में से कुछ ने भी उसके बारे में कुछ सोचा होगा। क्या समीप ही जिलाधिकारी कार्यालय को जाते अधिकारियों को वो लड़की कभी भी नहीं दिखाई दी होगी। क्या किसी अधिकारी ने उसके स्कूल जाने के बारे में नहीं सोचा होगा।

           क्या कालेज में होने वाली दोस्ती का दायरा कभी फल खरीदते हुए उस तक भी पहुँचता होगा। क्या कालेज के प्रेमी युगल कभी उससे फल खरीदकर उसे अपना दोस्त बनाते होंगे। क्या किसी प्रेमी - प्रेमिका के जन्मदिन की चाकलेट उस छोटी सी दोस्त तक भी पहुँचती होगी। क्या कोई उसे अपनी खुशियों में शामिल करता होगा।

           क्या हम कभी यह सोचते हैं कि स्वयं से निम्न स्तर पर जीवनयापन करने वालों के प्रति भावनात्मक लगाव रखना सामाजिक विषमता को कम करने में सहायक हो सकता है।

          अब न जाने वो लड़की कहाँ गयी। एक दिन ऐसा भी  रहा होगा, जब वो आखिरी बार वहाँ सड़क किनारे फल बेचने के लिये बैठी होगी। निम्न आय वर्ग के लोगों की शादी भी कम उम्र में ही हो जाती है। हो सकता है उसकी भी शादी हो गयी हो। क्या उसकी शादी अल्मोड़ा में ही हुई होगी या कहीं दूसरी जगह हुई होगी। ऐसा भी हो सकता है कि अभी तक उसकी शादी न हुई हो। उसका परिवार अल्मोड़ा से कहीं दूसरी जगह चला गया हो और वो अब भी फल बेचती होगी।

            लेकिन अब वो 12 - 13 साल की न रहकर बड़ी हो गयी होगी। क्या उसे फल बेचते हुए देखकर कोई उसके लिये कहता होगा....
                   
     तुम कितनी खूबसूरत हो, ये मेरे दिल से पूछो
     इन धड़कनों से पूछो तुम, क्यों दिल है तुमपे दीवाना....
       

       

       

रविवार, 27 अक्तूबर 2019

प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो



हमारे समाज तथा आभासी समाज (सोशल मीडिया) में एक प्रवृत्ति देखने को मिलती है कि "बेटियों" को "बेटा" कहकर संबोधित किया जाता है। कुछ घरों में बहू के प्रति ज्यादा प्रेम प्रदर्शित करने के लिये भी बहू को "बेटा" कहकर संबोधित किया जाता है या कहा जाता है कि ये हमारी बहू नहीं बेटी है।अविवाहित, विवाहित महिलाओं द्वारा किसी प्रकार की उपलब्धि/सफलता प्राप्त करने या नृत्य अथवा गायन के वीडियो से संबंधित पोस्ट में भी महिलाओं को "बेटा" शब्द से संबोधित किया जाता है।
बधाई बेटा..., बहुत अच्छा बेटा...

दीपावली में स्वयं की सुख-समृद्धि या सरल शब्दों में कहें तो स्वयं के स्वार्थ के लिये लक्ष्मी पूजन का स्वांग करने वाले, बेटी को बेटा कहकर संबोधित करने वालों के मन में बेटी या महिला होने के प्रति इतनी हीनभावना क्यों है कि उन्हें बेटा कहकर संबोधित किया जाये।

हालांकि मन में हीनभावना होने की बात सबके लिये नहीं कही जा सकती है। फिर भी सामाजिक व्यवहार के मापदंडों पर विचार और संवाद तो होना ही चाहिये।

माना कि ऐसे संबोधन के पीछे किसी प्रकार का नकारात्मक भाव नहीं ढूंढा जाना चाहिये लेकिन ऐसे लोग गलती से ही सही किसी अविवाहित/ विवाहित पुरुष को बेटी शब्द से संबोधित क्यों नहीं करते।

अगर सामाजिक व्यवहार की ऐसी ही परंपरा है तो हीनभावना को परिलक्षित करने वाली परंपरा क्यों रहनी चाहिये।

बेटी को बेटी के तौर और बहू को भी बहू के तौर पर ही सम्मान दिया जाना चाहिये। क्या बहू की स्वीकार्यता समाज में अभी भी केवल इतनी है कि उसे विशिष्ट सम्मान के लिये बहू के बजाय बेटी होने के आवरण की आवश्यकता पड़े।

बेटा - बेटी के संदर्भ में समाज में अभी भी एक ऐसी विलक्षण प्रजाति मौजूद है जो बेटे की चाह में कई सारी बेटियाँ पैदा करते जाते हैं या भ्रूण हत्या जैसे विकल्पों के बारे में सोचते हैं। यूं लगता है जैसे इनके घरों में राजकुमार का जन्म नहीं हुआ तो सल्तनत कौन संभालेगा। राजकुमार के पैदा होने का इंतजार करने के बजाय बेटी को ही उचित संसाधन देकर सक्षम बनाये जाने की आवश्यकता है।

आवश्यकता है कि बेटी को बेटी के तौर पर, बहू को बहू के तौर पर, महिला को महिला के तौर पर ही सम्मान मिले।

 आखिर कोई महिला सम्मान के लिये पुरूष के आवरण की तथा कोई बहू सम्मान के लिये बेटी के आवरण की मोहताज क्यों हो...